Friday, November 12, 2010

लोकतंत्र के राजा तुम, कैसी लोकतंत्र तुम्हारी-

ye poem........meri kalam se tab likhi gayi thi........jab mere bhaiya.jo ek Army man hai....wo kasmir ke halat mujhe suna rahe the.....nd unki baato se mujhe laga ki iss issue ke liye hamari sarkaar hi doshi hai.........so apni sarkaar ko kaashmir issue pe blame karte huye ye poem..... ye poem IITK ke ANTARAAGNI 07 ki top 5 me rahi hai....

उम्मीदों का दामन थामे , कब तक हार मनाओगे,
आश देख वे उजाड़ गए , कब उनको हक़ दिलाओगे,
जो रहते थे महलो में उनका सडको पे है आशियाना-
शान्ति शान्ति की भीख ले कब तक, जूठन उन्हें खिलाओगे.

दुसरे के दरवाजे जाकर अपना दुःख तुम गाते हो,
भाड़े के टट्टू के सामने कुछ भी ना कह पाते हो,
कागज़ पर तो जीत बहुत पर इस रोग की दवा नहीं-
बिन इलाज के घाव बदन पे कैसे तुम रह जाते हो.

मातृभूमि जानो से प्यारी इसका सुख वो पा न सके,
आतंको के साये में जीवन खुल कर कभी वो गा न सके,
लोकतंत्र के राजा तुम, कैसी लोकतंत्र तुम्हारी-
कहने को बलवान बहुत, पर घर की खुशियों को ला न सके.

मानवता के पाठ को पढ़ कर अपनी जान गवाते हो,
सत्य-अहिंसा रट रट के तुम उनको मार न पाते हो,
लोकतंत्र के मंदिर पर हमला,फिर भी हाथ पे हाथ तुम्हारी-
कुछ इज्जत तो है अपनी,पर क्यों नहीं तुम शर्माते हो.

मासूमो की हत्या घर में, हत्यारा घर में रहता है,
हिंसक को मत मारो,कौन धर्म यह कहता है,
बात न मानो "पाठक" की कुछ भी मलाल न होगा-
पर नजदीक से जाकर देखो उनको, कितना दर्द वो सहता है.

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