Friday, November 12, 2010

फिर कैसे जश्न मनाते हम

जब आती पास दिवाली हो,
चहु ओर चमकती लाली हो,
जब अपनी पोक्केट खाली हो,
ऊपर से चिल्लाती घरवाली हो,


आज देखा मैंने उसको ,
हा जी , देखा मैंने उसको.


ठंढक में था बैठा वो, अपनी देह सिकोड़,
आने जाने वालो से ,कुछ मांगे हाथ को जोड़,
अपनी लाचारी से मुक्ति का,उसके पास न कोई तोड़,
दे कोई ना या ना दे कोई, कम होती ना उसकी होड,


आज देखा मैंने उसको,
हा जी, देखा मैंने उसको.


धन बैभव का पर्व हमारा,दुल्हन सी सजी सारी नगरी,
कही बटे उपहार सभी को, तो किसी के घर खाली गगरी,
पर ये सब तो सपना सा उसका,वो घुमे ले अपनी पगरी,
बच्चे बीवी साथ में घुमे वो,व्यथा सुनाए एक सी सगरी,


आज देखा मैंने उसको,
हा जी, देखा मैंने उसको.


चहु ओर पठाखे गूँज रहे,उसकी आवाजे कुंद रहे,
पैसों को आगो में भूंज रहे,उसे देख के आँखे हम मूँद रहे,
क्या सच में यही दिवाली है,क्या सबके घर खुशहाली है,
क्या रोटी से भरी हर थाली है,या बहुतो के पेट भी खाली है,


आज देख के उसको कुछ सोचा मैंने,
हा जी,देख के उसको कुछ सोचा मैंने,


फिर कैसे जश्न मनाते हम, कैसे चुप रह जाते हम,
देख के आँखों से सुनके कानो से,कैसे न सहम जाते हम,
ये वक्त है हाथ बढ़ाने का,ये वक्त है आगे आने का,
कुछ मिलके कर दे "पाठक", न हो मोहताज कोई एक दाने का,

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