Friday, November 12, 2010

रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

main bahut achha to nahi likhta but ha try karta hoon kabhi kabhi.....ye pankti bi nikli hai kabhi aaj ke hi din.......ummid hai galtiyo pe dhyaan nahi diya jayega..or utsahit kiya jayega .......waise kuchh typing mistakes hai....hindi me type karne ki ...


कुर्शी हेतु लडाई लड़े , आदर्श बचे अवशेष में
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

सोने की चिडिया से चल कर बन गए हम भिखारी ,
सत्य अहिंसा की बात नहीं बन गए हम ब्याभिचारी ,
लूट-पाट दंगा-फसाद भेजे अब सन्देश में,
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

लोकतंत्र की नीव हिली संग संसद की गरिमा भारी,
नेता तीन सौ दो वाले या संग असलहा धारी,
अपने दिन मस्ती के बीते जनता चाहे क्लेश में,
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

बिभागो में काम नहीं बिन पैसो के होता,
हिंसावादी फले फूले सत्य यहाँ अब रोता,
हवाला घोटाला आम बात इनके अब श्रीगणेश में,
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

शिक्षा का स्तर ही बदला बढ़ गयी बेरोजगारी,
मर्यादा की बात नहीं असुरक्छित अबला नारी,
माँ बाप अब हुए पराये फंसे सभी है द्वेष में,
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

पथ से बिचलित होय सभी समझे खुद को सयाने,
राम,कृष्ण,गांधी,नेहरु को कौन यहाँ अब माने,
तामस भोज करा के चाहू दिशी जीते ये जनादेश में,
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

जिनकी बलिदानी अमूल्य ,बदतर हालत उनकी दिखती है,
मूर्ति महापुरुष की गिरती,हरदम सुनने को मिलती है,
लाओ मुद्दे मंदिर मस्जिद के ,देते ये उपदेश
मेंरावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

कुर्शी हेतु लडाई लड़े , आदर्श बचे अवशेष में ,
रावन राम के भेष में ,बापू तेरे देश में

लोकतंत्र के राजा तुम, कैसी लोकतंत्र तुम्हारी-

ye poem........meri kalam se tab likhi gayi thi........jab mere bhaiya.jo ek Army man hai....wo kasmir ke halat mujhe suna rahe the.....nd unki baato se mujhe laga ki iss issue ke liye hamari sarkaar hi doshi hai.........so apni sarkaar ko kaashmir issue pe blame karte huye ye poem..... ye poem IITK ke ANTARAAGNI 07 ki top 5 me rahi hai....

उम्मीदों का दामन थामे , कब तक हार मनाओगे,
आश देख वे उजाड़ गए , कब उनको हक़ दिलाओगे,
जो रहते थे महलो में उनका सडको पे है आशियाना-
शान्ति शान्ति की भीख ले कब तक, जूठन उन्हें खिलाओगे.

दुसरे के दरवाजे जाकर अपना दुःख तुम गाते हो,
भाड़े के टट्टू के सामने कुछ भी ना कह पाते हो,
कागज़ पर तो जीत बहुत पर इस रोग की दवा नहीं-
बिन इलाज के घाव बदन पे कैसे तुम रह जाते हो.

मातृभूमि जानो से प्यारी इसका सुख वो पा न सके,
आतंको के साये में जीवन खुल कर कभी वो गा न सके,
लोकतंत्र के राजा तुम, कैसी लोकतंत्र तुम्हारी-
कहने को बलवान बहुत, पर घर की खुशियों को ला न सके.

मानवता के पाठ को पढ़ कर अपनी जान गवाते हो,
सत्य-अहिंसा रट रट के तुम उनको मार न पाते हो,
लोकतंत्र के मंदिर पर हमला,फिर भी हाथ पे हाथ तुम्हारी-
कुछ इज्जत तो है अपनी,पर क्यों नहीं तुम शर्माते हो.

मासूमो की हत्या घर में, हत्यारा घर में रहता है,
हिंसक को मत मारो,कौन धर्म यह कहता है,
बात न मानो "पाठक" की कुछ भी मलाल न होगा-
पर नजदीक से जाकर देखो उनको, कितना दर्द वो सहता है.

फिर कैसे जश्न मनाते हम

जब आती पास दिवाली हो,
चहु ओर चमकती लाली हो,
जब अपनी पोक्केट खाली हो,
ऊपर से चिल्लाती घरवाली हो,


आज देखा मैंने उसको ,
हा जी , देखा मैंने उसको.


ठंढक में था बैठा वो, अपनी देह सिकोड़,
आने जाने वालो से ,कुछ मांगे हाथ को जोड़,
अपनी लाचारी से मुक्ति का,उसके पास न कोई तोड़,
दे कोई ना या ना दे कोई, कम होती ना उसकी होड,


आज देखा मैंने उसको,
हा जी, देखा मैंने उसको.


धन बैभव का पर्व हमारा,दुल्हन सी सजी सारी नगरी,
कही बटे उपहार सभी को, तो किसी के घर खाली गगरी,
पर ये सब तो सपना सा उसका,वो घुमे ले अपनी पगरी,
बच्चे बीवी साथ में घुमे वो,व्यथा सुनाए एक सी सगरी,


आज देखा मैंने उसको,
हा जी, देखा मैंने उसको.


चहु ओर पठाखे गूँज रहे,उसकी आवाजे कुंद रहे,
पैसों को आगो में भूंज रहे,उसे देख के आँखे हम मूँद रहे,
क्या सच में यही दिवाली है,क्या सबके घर खुशहाली है,
क्या रोटी से भरी हर थाली है,या बहुतो के पेट भी खाली है,


आज देख के उसको कुछ सोचा मैंने,
हा जी,देख के उसको कुछ सोचा मैंने,


फिर कैसे जश्न मनाते हम, कैसे चुप रह जाते हम,
देख के आँखों से सुनके कानो से,कैसे न सहम जाते हम,
ये वक्त है हाथ बढ़ाने का,ये वक्त है आगे आने का,
कुछ मिलके कर दे "पाठक", न हो मोहताज कोई एक दाने का,